जनविरोधी फैसलों में सिर्फ एक है बथानी टोला
From : JANJWAR
जन
सरोकारों से जुड़े हुए लोगों का
मानना है कि यह फैसला न केवल
दुर्भाग्यपूर्ण है,
बल्कि
बिहार व देश के अन्य राज्यों
की सामंती ताकतों का हौसला बढ़ाने
वाला है। इस फैसले ने महादलितों
को अधिकार व न्याय दिलाने का
दावा करने वाली नीतीश सरकार
की साख में बट्टा लगा दिया
है...
अर्जुन
प्रसाद सिंह
‘कानून
के हाथ बहुत लंबे हैं,
कोई मुजरिम
इससे बच कर निकल नहीं सकता।’...
‘न्यायपालिका
निष्पक्ष होती है,
वह दूध का
दूध और पानी का पानी कर देती
है।’....
‘न्याय की
देवी के हाथों में इंसाफ का
तराजू है,
वह हर अभियुक्त
के साथ इंसाफ करती है।’ ऐसी
न जाने कितनी सारी बातें हवा
में तैरती रहती हैं। खासकर,
देश की
मेहनतकश जनता के खून-पसीने
की कमाई को लूटने वाले
शासक-शोषक
समूह न्यायपालिका की निष्पक्षता
को सिद्ध करने में एड़ी-चोटी
का पसीना एक किये रहते हैं।
ऐसी स्थिति में अगर कोई देश
की न्यायपालिका की निष्पक्षता
पर सवाल उठाता है,
चाहे प्रशांत
भूषण हों या अरुंधती राय उन
पर कोर्ट की अवमानना का
मुकदमा चलाया जाता है।
लेकिन
सच्चाई लाख छिपाये नहीं छिपती।
हाल के वर्षों में उच्च
न्यायालय और उच्चतम न्यायालय
ने कई जनविरोधी-मजदूर
विरोधी फैसले किये हैं जिससे
उनकी निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह
खड़े हुए हैं। बिहार के पटना
उच्च न्यायालय के एक दो सदस्यीय
बेंच ने पिछले 16
अप्रैल
2012 को बथानी
टोला जनसंहार के मामले में
जो फैसला दिया है,
उससे उसका
असली चेहरा बेपर्दा हो गया
है।
गौरतलब है कि
सवर्णों की निजी गुंडावाहिनी
रणवीर सेना ने 11
जुलाई 1996
को भोजपुर
जिले के बथानी टोले पर सशस्त्र
हमला कर कुल 21
लोगों जिनमें
3 शिशु
(एक
मात्र 3 माह
का), 6 बच्चे
और 11 महिलायें
शामिल थे की नृशंसतापूर्वक
हत्या कर दी थी। मृतकों में
गाँवों में घूम-घूमकर
चूड़ी बेचने वाले गरीब नइमुद्दीन
अंसारी के परिवार के 6
सदस्य शामिल
थे, जिनमें
एक उनकी दुधमुंही 2
माह की बच्ची
भी थी। इस बच्ची को रणवीर
सेना के दरिंदों ने हवा में
उछालकर तलवार से काट दिया था।
इसकी अख़बारों में काफी चर्चा
हुई थी। इसी तरह नईमुद्दीन के
7 वर्षीय
बेटे सद्दाम की गर्दन पर
भी तलवार से वार किया,
जिससे वह
बुरी तरह जख्मी हो गया था।
मात्र एक सप्ताह के अंदर उस
बच्चे की पटना मेडिकल कॉलेज
अस्पताल में मौत हो गई थी।
इस जनसंहार
के दूसरे दिन किशुन चौधरी ने
सहार थाना के पदाधिकारियों
और अन्य पुलिस अफसरानों के
समक्ष इस घटना से संबंधित
एफआईआर दर्ज करायी थी,
जिसमें कुल
33 हमलावरों
को नामजद किया गया था। पुलिस
ने इस केस में अक्टूबर 1996
तक ‘चार्ज
फ्रेम' कर
दिया था। लेकिन सेशन कोर्ट,
आरा में
करीब 14 सालों
तक इस मुकदमे की सुनवाई चलती
रही थी।
आखिरकार,
ट्रायल
कोर्ट ने इस केस के अभियुक्तों
के खिलाफ अपना फैसला सुनाया,
जिसमें से
तीन अजय सिंह,
मनोज सिंह
और नागेन्द्र उर्फ नरेन्द्र
सिंह कोफांसी तथा 20
अन्य को
आजीवन कारावास की सजा दी गयी
थी। कोर्ट में नइमुद्दीन
अंसारी समेत 6
मुख्य गवाहों ने
उक्त सजायाफ्ता लोगों के
खिलाफ काफी पुख्ता गवाही
दी थी, जिससे
अजय सिंह पर 10
साल की बच्ची
फूल कुमारी,
मनोज सिंह
पर 3 माह
की दुधमुंही बच्ची और नागेन्द्र
सिंह पर संझरू देवी व रमरतिया
देवी की नृशंसतापूर्वक हत्या
करने के आरोप साबित हो गये थे।
जब आरा
सेशन कोर्ट में इस फैसले के
खिलाफ सभी सजावार लोगों की
और से पटना हाई कोर्ट में अपील
की गई, तो इसकी
सुनवाई के दौरान सारा मामला
ही पलट गया। अंततः 16
अप्रैल-2012
को इस हाईकोर्ट
की एक बेंच जिसमें जस्टिश
नवनीत प्रसाद सिंह और जस्टिस
अश्विनी कुमार सिंह शामिल
थे, ने
त्रुटिपूर्ण साक्ष्य को आधार
बनाते हुए बथानी टोला जनसंहार
के सभी अभियुक्तों को बरी कर
दिया।
हाईकोर्ट
के इस पक्षपातपूर्ण फैसले पर
मीडिया और राजनीतिक हलकों में
काफी प्रतिक्रिया हो रही
है। जन सरोकारों से जुड़े हुए
लोगों का मानना है कि यह
फैसला न केवल दुर्भाग्यपूर्ण
है, बल्कि
बिहार व देश के अन्य राज्यों
की सामंती ताकतों का हौसला बढ़ाने
वाला है। इस फैसले ने महादलितों
को अधिकार व न्याय दिलाने का
दावा करने वाली नीतीश सरकार
की साख में बट्टा लगा दिया है।
हालांकि
बिहार व देश के अन्य राज्यों
के सजग नागरिकों को पता है
कि यह वही नीतीश सरकार है जिसने
कुछ साल पहले रणवीर सेना और
राजनीतिज्ञों की सांठगांठ
को उजागर करने वाली अमीरदास
आयोग की रिपोर्ट को ठंडे
बस्ते में डाल दिया है। इस
रिपोर्ट में भाजपा व जनता
दल (यू)
कई नेताओं पर
कुख्यात रणवीर सेना का
विशिष्ठ प्रकार का सहयोग देने
का आरोप लगाया गया था। यहां
तक कि वर्तमान उप मुख्यमंत्री
सुशील कुमार मोदी भी इस गंभीर
आरोप के घेरे में थे।
जहाँ
तक पटना हाईकोर्ट के बथानी
टोला जनसंहार के मामले में
दिये गये हालिया फैसले की बात
है, इस
पर आश्चर्यचकित होने जैसी
कोई बात नहीं है। इसके पूर्व
भी इस कोर्ट के माननीय न्यायाधीश
जनसंहारों के मामलों में
आमतौर पर इसी प्रकार के
फैसले करते रहे हैं। वर्ष1980
और1990
के दशकों में
बिहार में भूमि सेना,
लोरिक सेना,
ब्रह्मऋषि
सेना,
सत्येन्द्र
सेना,
सवर्ण लिबरेशन
फ्रंट,
सनलाईट
सेना व रणवीर सेना जैसी निजी
गुंडा वाहनियों द्वारा
दर्ज़नों जनसंहार रचाये गये,
जिनमें
सैकड़ों की तादाद में गरीब
दलित व अति पिछड़े समुदाय के
लोग मारे गये। केवल लक्ष्मण
पुर बाथे (1997)
शंकर बिगहा
(1999) व
मिंयापुर (2000)
जनसंहारों
में कुल 116
लोग मारे
गये, जिनमें
बच्चों और महिलाओं की तादाद
काफी अधिक थी।
रणवीर
सेना के सरगना ब्रह्मेश्वर
सिंह ने भोजपुर जहानावाद,
गया व औरंगाबाद
जिलों में करीब डेढ़ दर्जन
जनसंहारों को अंजाम देने
में नेतृत्वकारी भूमिका अदा
की थी। अपनी इस भूमिका
को उसने पुलिस व मीडिया के
सामने भीस्वीकार की थी। लेकिन
इसके बावजूद उसे पिछले साल
जुलाई में ही जेल से रिहा कर
दिया गया है। इसी प्रकार
जहानाबाद के सावन बिगहा और
गया के मेन-बरसिम्हा
जैसे जघन्य जनसंहारों को अंजाम
देने वाली निजी सेना सवर्ण
लिबरेशन फ्रंट के सरगना रामाघाट
सिंह उर्फ डायमंड को भी कोर्ट ने
मुक्त कर दिया था। आज की तारीख
में उपर्युक्त जनसंहारों
को अंजाम देने वाली निजी
वाहनियों के अधिकांश प्रमुख
लोगों को कोर्ट ने या तो जमानत
पर रिहा या बरी किया जा चुका
है।
करीब 2
साल पूर्व
अप्रैल 2010
में पटना
सेशन कोर्ट ने लक्ष्मणपुर
बाथे जनसंहार में शामिल रणवीर
सेना के 16
लोगों को
फांसी और 10
लोगों
को आजीवन कारावास की सजा
सुनाई है। इस जनसंहार में 10
बच्चों और
27 महिलों
समेत कुल 58
दलित व गरीब
लोग मारे गये थे। इस सजा के
खिलाफ पटना हाईकोर्ट में अपील
लंबित है। बथानी टोला जनसंहार
के मामले में दिये गये इस
हाईकोर्ट के फैसले से इस आशंका
को बल मिलता है कि लक्ष्मणपुर
बाथे नरसंहार के सभी सजायफ्ता
भी अन्ततः बरी कर दिये जायेंगे।
लेकिन
सिक्के का दूसरा पहलू भी है,
यानी अदालत
का एक दूसरा चेहरा भी हमारे
सामने है। जब सम्नातों और
ठेकेदारों की निजी गुंडा
वाहिनियों द्वारा रचाये गये
जनसंहारों के प्रतिक्रिया
स्वरूप बिहार के मगध क्षेत्र
में कार्यरत एमसीसी ने दलेल
चक बघौरा,
बारा व
सेनारी जैसी ‘जबाबी कार्रवाइयां’
कीं, तो
पुलिस प्रशासन व राज्य सरकार
के साथ-साथ
अदालत के रुख में गुणात्मक
फर्क आ गया। चूंकि इन ‘जबाबी
कार्रवाइयों’ में सवर्ण जाति
के दर्जनों लोग मारे गये,
इसलिए बड़े
पैमाने पर एमसीसी और अन्य
नक्सलवाड़ी ग्रुपों के
कार्यकर्ताओं व समर्थकों की
गिरफ्तारियां की गईं।
इनमें से
दर्जनों लोगों पर ‘टाडा’ जैसे
कठोर व दमनकारी कानून की धारायें
भी लगाई गईं। बारा कांड (1992)
से जुड़े
मामले में बिहार के विशेष टाटा
कोर्ट ने दौचक में अब तक 7
अभियुक्तों
(वीर
कुंवर पासवान,
कृष्णा
मोची, नन्हें
लाल मोची,
धारू सिंह,
व्यास कहार,
नरेश पासवान
व युगल मोची)
को फांसी
की सजा सुना दी है। इनमें से
प्रथम 4 की
फांसी की सजा को सर्वोच्च
न्यायालय ने भी अनुमोदि कर
दिया है। और उनका ‘मर्सी पिटीशन’
वर्षों से से राष्ट्रपति के
पास लंबित है।
इसी प्रकार
पिछले दो दशकों के दौरान करीब
150 दलित
व अति पिछड़ी जाति के अभियुक्तों
को बिहार के विशेष अदालतों
द्वारा फांसी की सजा सुनाई
गई है। इस प्रकार वहां फांसी
की सजा पाने वालों में दालतों
व अति पिछड़ी जाति के लोगों
को शत-प्रतिशत
आरक्षण मिला हुआ है।
बिहार व
देश के अन्य हिस्सों से यह
सवाल उठ रहे हैं कि दर्जनों
जनसंहारों को अंजाम देने वाली
रणवीर सेना के सरगना ब्रम्हेश्वर
सिंह को कोर्ट ने कारागार से
मुक्त क्यों किया?
ठोस गवाही
के बावजूद बथानी टोला के लोगों
की जघन्य हत्या करने वालों
को पटना हाईकोर्ट ने बरी क्यों
किया? फिर
बारा कांड के गरीब व दलित
अभियुक्तों को फांसी क्यों?
आज नहीं तो
कल इन प्रश्नों का जवाब देना
पड़ेगा ।
(अर्जुन
प्रसाद सिंह भारत का लोक जनवादी
मोर्चा के संयोजक हैं और
उत्पीडित तबकों के संघर्षों
के जानकार हैं.)
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