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Thursday, January 21, 2010

PROTEST AGAINST OPERATION GREEN HUNT

PEASANTS & FARM LABOURERS HOLD DHARNA

DEMAND RELEASE OF THEIR LEADER ARRESTED FOR BEING "MAOIST"


Bharti Kissan Union Ekta (Ugrahan) and BKU (Dakonda) today held a state level massive Dharna at Bathinda, demanding unconditional release of Sh. Surjit Singh Phul, State President BKU (Krantikari), who was arrested under the Unlawful Activities Act and charged with being a Maoist.The Dharna was supported by various organisations of agricultural labourers and BKU (Krantikari). Given above are some of the photographs of this Dharna:




Wednesday, January 13, 2010

MIGRANT WORKERS PROTEST AT LUDHIANA

In the Ist week of December the migrant workers of Ludhiana came out on the roads to protest against the brutalities being inflicted upon them by a gang up of factory owners, police,Goondas and the Administration. It was a spontaneous protest action. A section of the ruling classes has tried to portray these events as a struggle between Punjabis & migrants. We are publishing here a leaflet issued by some trade unions & mass organisations to put these events in true perspective:

मालिक-पुलिस-प्रशासन-गु्ण्डा गठबन्धन मुर्दाबाद ! मज़दूर एकता जिन्दाबाद!
लूट-दमन-अन्याय के खिलाफ लुधियाना के
मज़दूरों के जबरदस्त संघर्ष को सलाम !

मज़दूरों को बाँटने की हुक्मरानों की चालों को नाकामयाब करो !
'पंजाबी-प्रवासी' के झगड़े छोडो, सही लडाई से नाता जोडो !


मेहनतकश साथीयो,
ढण्डारी कलां (लुधियाना) में एक बार फिर मज़दूरों के स्वयं:स्फूर्त रोषपूर्ण विरोध प्रदर्शन ने मज़दूर वर्ग की नर्क से भी बदतर परिस्थियों को जगजाहिर कर दिया है । साथ ही इस संघर्ष ने मज़दुरों की जालिमों के खिलाफ आरपार की लडाई लड़ सकने की ताकत का नज़ारा पेश किया है । बिना किसी तैयारी के, बिना किसी अगवाई के और बिना किसी संगठन के ही मज़दूरों ने पुलिस को लोहे के चने चबाने पर मज़बूर कर दिया । पुलिस, प्रशासन, मालिकों, पूंजीवादी राजनितिक पार्टियों और उन के भाड़े के गुण्डों के नापाक मज़दूर विरोधी गठबंधन द्वारा मेहनतकशों को 'भइओं' और 'पंजाबियों' के नाम पर बाँट कर भले ही उनके संघर्ष कि फिलहाल दबा दिया गया हो लेकिन यह भी सच है कि आने वाले समय में मज़दूर क्षेत्रीय भेदभावों को मिटाकर संगठित रूप में और भी जबरदसत ताकत से उठेंगे और इस नापाक मज़दूर विरोधी गठबन्धन को सबक सिखाएँगे ।
3 और 4 दिसम्बर को हुए इन जबरदस्त रोष-प्रदर्शनों और इनके तत्कालीक कारण सभी जानते ही हैं। लेकिन, हमारा मानना है कि मज़दूरों का यह जबरदस्त जनउभार केवल बाईकर्ज गैंग के आतंक, इस पर पुलिस-प्रशासन द्वारा मज़दूरों की सुरक्षा के लिए कोई कदम ना उठाने, पुलिस द्वारा भयंकर निर्दयता की हद तक गिर कर शिकायकर्तायों को ही जलील करने के खिलाफ ही नहीं था बल्कि इसके पीछे मालिकों, पुलिस, प्रशासन, सरकार द्वारा मज़दूरों के साथ लम्बे समय से पल-पल हो रहा लूट, शोषण, अपमान, अन्याय और दमन का सिलसिला था। मज़दूरों के दिलों में लम्बे समय से जमा हो रहे गुस्से के बारूद को बाइकर्ज गैंग के आतंक और पुलिस की बेरुखी ने तो सिर्फ आग ही मुहैया करवाई है।
लुधियाना के गरीब मज़दूर भयंकर लूट दमन का शिकार हैं। मज़दूर दमघोटू और खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं और गंदी बस्तियों में रहते हैं। कारखानों के मालिकों का जंगलराज है। मालिकों द्वारा कारखानों में मज़दूरों के कोई भी हक-कानून लागू नहीं हो रहे हैं। 12-14 घंटे के काम के बाद भी न तो वाजिब वेतन ही मिलता है, और जब देखा तब थप्पड़ मारकर, जलील करकर काम से निकाल दिया जाता है। कारखाने के बाहर तो क्या मज़दूरों की तो कारखाने में भी कोई सुरक्षा नहीं है। खूँखार मालिकों के आदमखोर कारखानों में पता नहीं कितने ही मज़दूरों को काम करते वक्त जान गवाँनी पड़ चुकी है, अपने अंग कटवाने पड़ चुके हैं।मज़दूर बस्तियों और गाँवों को सारी सुविधाओं से वन्चित रखा गया है। गरीबों के हिस्से की सारी सुविधायें सराभा नगर, मॉडल टाउन जैसे इलाकों में रहने वाली अमीर अबादी को पहुँचाई जा रही हैं। सरकार, प्रशासन, पुलिस, श्रम विभाग को कोई शर्म नहीं है। वे खुले रूप में पूंजीपतियों के रक्षकों और दलालों की भूमिका निभा रहे हैं। कमरतोड़ महँगाई ने मज़दूरों का जीना मुश्किल कर रखा है लेकिन सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही। हम पूछते हैं जब चारों ओर से मज़दूर अन्याय ही अन्याय सह रहे हों, जब उनकी सुनवाई करने वाला कोई न हो तो मज़दूर अपना हक लेने के लिए सड़कों पर क्यों न उतरें? वे क्यों शांति बनाय रखें? वे क्यों न उनके जीवन की शांति छीन लेने वाले लुटेरे जालिमों के खिलाफ आग-बबूला बन कर उठें?
साथियो, मज़दूर चाहे पंजाबी पृष्ठभूमि के हों चाहे किसी अन्य राजय की पृष्ठभूमि के - सभी बराबर रूप में लूट-शोषण का शिकार हैं। लुधियाना के पूंजीपतियों, पुलिस, प्रशासन द्वारा उनकी लूट और दमन करते वक्त यह नहीं देखा जाता कि कौन पंजाबी है और कौन प्रवासी। वे सभी को बराबर लूटते और पीटते हैं। सभी मज़दूरों की कहीं सुनवाई नहीं है। लेकिन मज़दूरों के बीच में पंजाब-यू॰पी॰-बिहार के नाम पर बड़े पैमाने पर फैली क्षेत्रीय भावनांए हमारी एकता में बहुत बड़ी रुकावट हैं। इसी कारण हम मालिकों-सरकार-पुलिस-प्रशासन-गुण्डा गठबन्धन से बार बार हार जाते हैं। 4 दिसम्बर को भी इस गठबन्धन ने मज़दूरों के विरोध-प्रदर्शन के दमन के लिए सधारण पंजाबी मेहनतकश आबादी को उनके ही मेहनतकश भाई-बहनों के खिलाफ लड़वाने की चाल चली। पुलिस और भाड़े के गुण्डों द्वारा पंजाबियों को यह झूठ बोलकर भड़काया गया कि 'भइए' 'पंजाबियों' पर हमला करने जा रहे हैं। असल में मज़दूर तो अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ सड़कों पर उतरे थे। हाँ, प्रदर्शनकारियों के बीच में यू॰पी॰-बिहार की क्षेत्रीय राजनीति करने वाले मज़दूर विरोधी तत्व भी थे जिन्होंने तोड़-फोड़ और अगजनी की कार्रवाईयों को अंजाम दिया। भीतरघातियों की इन कार्रवाईयों ने पुलिस को यह बहाना दे दिया कि वह मज़दूरों का बलपूर्वक दमन करे। इन कार्रवाईयों ने पुलिस और गुण्डों को एक मुद्दा भी दे दिया जिससे वे सधारण पंजाबी मेहनतकशों को भड़का सकें। क्षेत्रीय राजनीति चाहे पंजाब के नाम पर हो या यू॰पी॰-बिहार के नाम पर हमेशा मज़दूर एकता को बाँटने के लक्षय से लुटेरे हुक्मरानों की चाल होती है। 5 दिसम्बर को लुधियाना में ही दो धार्मिक गुटों का हुआ टकराव भी हुक्मरानों की लोगों को बाँटने की चालों को दिखाता है।सारे मज़दूरों को दुश्मन की इन चालों को समझना होगा। क्षेत्रीय राजनीति करने वालों को निकाल बाहर करना होगा और मज़दूर वर्गीय आधार पर एकजुट होकर आरपार की लड़ाई की तैयारी करनी होगी।
हम पहले भी इस बात पर बार बार जोर देते आए हैं कि सरकार से हमें कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए।पंजाब सरकार के मज़दूर विरोधी रुख से हम तो अच्छी तरह परिचित हैं। उसके पास मज़दूरों के लिए लाठी-गोली के सिवा कुछ नहीं। पुलिस और गुण्डों द्वारा मज़दूरों की मारकाट के दौरान मरने और जख्मी होने वाले मज़दूरों के लिए कोई मुआवज़ा घोषित नहीं किया गया। एक भी पुलिस अधकारी के खिलाफ दिखावे के अलावा सख्त कार्रवाई का कोई कदम नहीं उठाया गया। बिहार सरकार का ड्रामा भी हम देख ही चुके हैं। भोले भाले बिहारी मज़दूरों को यह भम्र था कि शायद बिहार सरकार की भेजी जाँच-टीम उनकले हक में कुछ कहेगी और बिहार सरकार केन्द्र और पंजाब सरकारों पर उनके हक में दबाव बनाएगी। लेकिन मज़दूरों के हक में कुछ करना तो दूर इस जांच टीम ने तो मज़दूरों के हक में एक शब्द भी नहीं बोला। अखबारों में सभी ने इस जांच टीम के ब्यान पढ़े हैं और यह टीम मालिकों और पुलिस-प्रशासन की वाह-वाह करके बिहार लौट चुकी है।
मालिकों और पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों के भाड़े के गुण्डों से मिलकर जिस प्रकार मज़दूरों पर डण्डों, तलवारों, बन्दूकों से हमला बोला गया, उन्हें मारा काटा गया, मज़दूर औरतों के कपड़े फाड़े गये और बलातकार हुए, उनके घरों को आग लगाई गई और तोड़फोड की गई, जुल्म का जो नंगा नाच किया गया उससे यह जगजाहिर हो चुका है कि पुलिस मज़दूरों की रक्षा के लिए नहीं बल्कि मालिकों-पूंजीपतियों और गुण्डों की रक्षा के लिए है। मज़दूरों को अपनी रक्षा के खुद इंतजाम करने होंगे। 6 दिसम्बर को लक्ष्मी नगर के वासियों द्वारा गुण्डों की पिटाई की घटना एक अच्छी उदाहरण है। महत्वपूर्ण बात यह है कि गुण्डों की एकजुट होकर पिटाई करने वाले लोगों में पंजाब और अन्य राज्यों, दोनों पृष्ठभूमि के लोग शामिल थे। इस घटना का एक ही सबक है- पुलिस से उम्मीद न करते हुए प्रवासी-पंजाबी के झगड़ों में न पड़ कर आपसी एकता बनाकर अपनी रक्षा खुद की जाए। हमने लुधियाना के मज़दूरों की ओर से पंजाब, उतर प्रदेश और बिहार प्रांतों के मुख्य मंत्रियों व श्रम मंत्रियों को पत्र भेजकर यह मांगें उठाई हैं कि:

1. लुधियाना की हालत बिगाड़ने वाले दोषी गुण्डा गैंग को पकड़ने के लिए पुख्ता कदम उठाए जाएँ। पुलिस की मिलीभगत के बिना इस गैंग की कार्रवाईयां असम्व हैं। सो, मिलीभगत करने वाले पुलिस अधकारीयों का पता लगा कर उन्हें कड़ी सजा दी जाए।
2. निर्दोष मज़दूरों पर बनाए गए झूठे पुलिस केस रद्द किए जाएं व उन्हें रिहा किया जाए। मारे गए और घायल हुए मज़दूरों को उचित मुआवजा दिया जाए। मज़दूरों के जलाए और तोड़े-फोड़े गए क्वाटरों, घरों, दुकानों व समान के नुकसान के लिए उचित मुआवजा दिया जाए। लोगों के जान-माल व समान की रक्षा की गरण्टी की जाए।
3. कारखानों में मज़दूरों के कानूनी हक अधिकार लागू हों। सरकार और प्रशासन मज़दूरों की रिहायश, अनाज, सेहत, शिक्षा आदि बुनियादी शहरी सुविधाओं की गरण्टी करे।
4. कमरतोड़ महँगाई पर फौरी तौर पर काबू पाया जाए।

मज़दूर साथीयो, खुद को कमज़ोर न समझो। अपने अन्दर छुपी ताकत को पहचानो। 4 दिसम्बर को मज़दूरों ने जिस शानदार ताकत का नज़ारा पेश किया उसने यह तो सिद् कर ही दिया है कि अगर मज़दूर इकजुट होकर आगे आएँ तो वो किसी भी ताकत से टक्कर ले सकते हैं। भले ही हमें फिलहाल दबा दिया गया हो लेकिन एकबार तो मज़दूरों ने पुलिस को भी दाँतों तले उंगलियां दबाने को मज़बूर कर दिया था। अन्दाजा लगाइए अगर हमारे पास एक सही संगठन और नेतृत्व हो, हम लम्बी तैयारी के साथ योजनाबद् रूप में संघर्ष करें तो हम किस ताकत को नहीं झुका सकते? अंत में हम लुधियाना के संघर्षशील मज़दूरों की ओर से दमनकारियों के सामने यह ऐलान करते हैं :
हाँ सच है यही सच है, हार कर कुछ पीछे हटे हैं हम।
संघर्ष में लेकिन डटे हैं, हाँ डटे हैं हम।
सभी मेहनतकशों को इंकलाबी सलाम के साथः

* मोल्डर एण्ड स्टील वर्कर्ज यूनियन-रजि,

( हरजिन्दर सिंह -94643-60755)

* मोल्डर एण्ड स्टील वर्कर्ज यूनियन-रजि,

(विजय नारायण-94174-72095)

* लाल झण्डा पंजाब निर्माण मज़दूर यूनियन

(हरदेव सनेत-98141-51556)

* कारखाना मज़दूर यूनियन (राजविन्दर-98886-55663)
* लाल झण्डा टैक्सटाईल एण्ड हौजरी मज़दूर यूनियन

(का. शयाम नारायन यादव 98887-27960)

* हौजरी वर्करज यूनियन (रमेश कुमार)
* पंजाब निर्माण वाटर सप्लाई सीवरेज बोर्ड मज़दूर यूनियन, लुधिः

(का. मोहन लाल)

* लोक ऐकता संगठन (गल्लर चोहान)

प्रकाशन दिनांक : 14 दिसम्बर 2009

Friday, January 8, 2010

ANNOUNCEMENT

As our contribution to the ongoing struggle by the farmers, agricultural labourers, electricity employees and other democratic sections against the unbundling of the Punjab State Electricity Board, the Lok Morcha Punjab, has released a special issue of its organ MUKTI MARG containing in-depth material concerning Indian power-sector, especially the Indian Electricity Act, 2003 and the anti-people nature of the policies of corporatisation, privatization and commercialization being pursued by the rulers. This issue is priced at Rs.5/-

View this issue of MUKTI MARG here.

LOK MORCHA PUNJAB CONDEMNS DETENTION OF Sh. HIMANSHU BY CHHATTISGARH POLICE

Lok Morcha Punjab strongly condemns the detention of Sh. Himanshu of the Vanvasi Chetna Asharam (VCA) Dantewada. This arrest and the earlier intimidatory steps taken by the Chhattisgarh Govt, clearly show its anti-people, fascist & repressive character. The rulers of Chhattisgarh & India are mainly interested in aiding & abetting the plunder of rich natural resources of Chhattisgarh by imperialist MNCs and their Indian agents. We join you in demanding immediate & unconditional release of Sh. Himanshu & all such other social and political activists, implementation of the SC orders of rehabilitation of internally displaced people, stopping of all operations like green hunt and others that are responsible for human rights violations and
letting activists and media to freely move in the areas.

AMOLAK SINGH
General Secretary
N.K.JEET Advocate
President,
LOK MORCHA PUNJAB
E-Mail: nkjeetbti@gmail.com
Website: lokmorcha.blogspot.com
Blog: Muktimarg

Friday, January 1, 2010

ਦੇਸ਼ ਵਿਦੇਸ਼ ਦੇ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀਆਂ ਵੱਲੋਂ
'ਅਪਰੇਸ਼ਨ ਗਰੀਨ ਹੰਟ' ਬਾਰੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਨੂੰ ਖ਼ਤ


ਜਮਹੂਰੀ ਹੱਕਾਂ ਲਈ ਅਵਾਜ਼ ਉਠਾਉਣ ਦੀ ਅਪੀਲ

ਸੰਸਾਰ ਅਤੇ ਮੁਲਕ ਦੇ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀ ਅਤੇ ਇਨਸਾਫ਼ ਪਸੰਦ ਹਲਕਿਆਂ ਵਲੋਂ ਅਪ੍ਰੇਸ਼ਨ ਗਰੀਨ ਹੰਟ ਬਾਰੇ ਭਾਰਤ ਦੇ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਨੂੰ ਲਿਖਿਆ ਖ਼ਤ ਅਸੀਂ ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਲੋਕ-ਪੱਖੀ, ਇਨਸਾਫਪਸੰਦ ਅਤੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀ ਹਲਕਿਆਂ ਦੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਲਈ ਜਾਰੀ ਕਰ ਰਹੇ ਹਾਂ । ਅਸੀਂ ਉਮੀਦ ਕਰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਪੰਜਾਬ ਦੇ ਲੋਕ-ਪੱਖੀ ਜਮਹੂਰੀ, ਇਨਸਾਫ-ਪਸੰਦ ਅਤੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀ ਹਲਕੇ ਵੀ ਇਸ ਗੰਭੀਰ ਮੁੱਦੇ 'ਤੇ ਢੁੱਕਵੀਆਂ ਸ਼ਕਲਾਂ 'ਚ ਆਪਣਾ ਸਰੋਕਾਰ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਨ ਲਈ ਅੱਗੇ ਆਉਣਗੇ, ਇਸ ਨਾਜ਼ੁਕ ਮੌਕੇ ਆਪਣਾ ਫਰਜ਼ ਪਛਾਣ ਕੇ, ਢੁਕਵੀਆਂ ਸ਼ਕਲਾਂ 'ਚ ਇਸ ਵਿਰੋਧ ਮੁਹਿੰਮ ਨੂੰ ਤਕੜੀ ਕਰਨ 'ਚ ਰੋਲ ਅਦਾ ਕਰਨਗੇ ।

ਇਨਕਲਾਬੀ ਕੇਂਦਰ ਪੰਜਾਬ ***** ਲੋਕ ਮੋਰਚਾ ਪੰਜਾਬ
ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਕ : ਕੰਵਲਜੀਤ ਖੰਨਾ 94170-67344 ,***** ਅਮੋਲਕ ਸਿੰਘ: 94170-76735
ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਨ ਮਿਤੀ: 5 ਦਸੰਬਰ, 2009

ਵੱਲ:
ਡਾ. ਮਨਮੋਹਨ ਸਿੰਘ, ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ,
ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ, ਦੱਖਣੀ ਬਲਾਕ,
ਰਾਇਸਨ ਹਿੱਲ, ਨਵੀਂ ਦਿੱਲੀ - 110011

ਸਾਡੇ ਲਈ ਇਹ ਗਹਿਰੀ ਚਿੰਤਾ ਦਾ ਮਾਮਲਾ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ, ਆਂਧਰਾ ਪ੍ਰਦੇਸ਼, ਛੱਤੀਸਗੜ੍ਹ, ਝਾਰਖੰਡ, ਮਹਾਰਾਸ਼ਟਰ, ਉੜੀਸਾ ਅਤੇ ਪੱਛਮੀ ਬੰਗਾਲ ਰਾਜਾਂ ਦੇ ਆਦਿਵਾਸੀ ਵਸੋਂ ਵਾਲੇ ਇਲਾਕਿਆਂ 'ਚ, ਸੁਰੱਖਿਆ ਬਲਾਂ ਅਤੇ ਫੌਜ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕਰਕੇ ਲਾਮਿਸਾਲ ਫੌਜੀ ਹਮਲਾ ਵਿੱਢਣ ਦੀਆਂ ਵਿਉਂਤਾਂ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ । ਇਸ ਹਮਲੇ ਦਾ ਐਲਾਨੀਆ ਮੰਤਵ ਇਨ੍ਹਾਂ ਇਲਾਕਿਆਂ ਨੂੰ ਮਾਓਵਾਦੀ ਬਾਗੀਆਂ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਤੋਂ 'ਮੁਕਤ' ਕਰਨਾ ਹੈ । ਇਸ ਫੌਜੀ ਮੁਹਿੰਮ ਨੇ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਇਲਾਕਿਆਂ 'ਚ ਰਹਿੰਦੇ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਜ਼ਿੰਦਗੀਆਂ ਅਤੇ ਉਪਜੀਵਿਕਾ ਨੂੰ ਖ਼ਤਰੇ ਮੂੰਹ ਪਾਉਣਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸਦਾ ਸਿੱਟਾ, ਸਾਧਾਰਣ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਭਿਆਨਕ ਉਜਾੜੇ, ਕੰਗਾਲੀ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖੀ ਹੱਕਾਂ ਦੀ ਘੋਰ ਉਲੰਘਣਾ 'ਚ ਨਿਕਲਣਾ ਹੈ । ਕਿਸੇ ਬਗਾਵਤ ਨੂੰ ਕੁਚਲਣ ਦੇ ਨਾਂ ਥੱਲੇ, ਭਾਰਤ ਦੇ ਸਭ ਤੋਂ ਗਰੀਬ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਖੇਡਿਆ ਜਾਣਾ ਹੈ । ਇਹ ਇੱਕ ਉਲਟ-ਉਪਜਾਊ ਅਤੇ ਉਲਝਾਊ-ਗੇੜ 'ਚ ਪੈਣ ਵਾਲੀ ਕਾਰਵਾਈ ਹੈ । ਸਰਕਾਰ ਵਲੋਂ ਪਾਲੀਆਂ-ਪੋਸੀਆਂ ਬਾਗ਼ੀ-ਵਿਰੋਧੀ ਸਥਾਨਕ ਹਥਿਆਰਬੰਦ ਟੁੱਕੜੀਆਂ ਦੀ ਮੱਦਦ ਨਾਲ ਨੀਮ-ਫੌਜੀ ਬਲਾਂ ਵਲੋਂ ਵਿੱਢੀਆਂ ਮੁਹਿੰਮਾਂ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਛੱਤੀਸਗੜ੍ਹ ਅਤੇ ਪੱਛਮੀ ਬੰਗਾਲ ਦੇ ਕੁੱਝ ਹਿੱਸੀਆਂ ਵਿਚ ਘਰੇਲੂ-ਯੁੱਧ ਵਰਗੀ ਹਾਲਤ ਬਣੀ ਹੋਈ ਹੈ । ਇਸ ਹਾਲਤ ਨੇ ਸੈਂਕੜਿਆਂ ਦੀ ਬਲੀ ਲੈ ਲਈ ਹੈ ਅਤੇ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਨੂੰ ਉਜਾੜ ਦਿੱਤਾ ਹੈ । ਪ੍ਰਸਤਾਵਿਤ ਫੌਜੀ ਹਮਲੇ ਨੇ ਨਾ ਸਿਰਫ਼ ਆਦਿਵਾਸੀ ਵਸੋਂ ਦੀ ਗਰੀਬੀ, ਭੁੱਖਮਰੀ, ਜ਼ਲਾਲਤ ਅਤੇ ਅਸੁੱਰਖਿਆ ਦੀ ਹਾਲਤ 'ਚ ਵਾਧਾ ਕਰਨਾ ਹੈ ਸਗੋਂ ਇਸਨੇ ਹੋਰ ਵਡੇਰੇ ਖੇਤਰ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕਲਾਵੇ 'ਚ ਲੈ ਲੈਣਾ ਹੈ ।
90ਵਿਆਂ ਦੇ ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ, ਜਦੋਂ ਤੋਂ ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਦੇ ਨੀਤੀ ਚੌਖਟੇ 'ਚ ਨਵ-ਉਦਾਰਵਾਦ ਦਾ ਮੋੜਾ ਆਇਆ ਹੈ - ਗਰੀਬੀ 'ਚ ਪਿਸ ਰਹੀ ਅਤੇ ਨਿੱਘਰੀਆਂ ਜਿਉਣ ਹਾਲਤਾਂ ਜੂਨ ਹੰਢਾ ਰਹੀ ਭਾਰਤ ਦੀ ਆਦਿਵਾਸੀ ਵਸੋਂ ਨੂੰ, ਲਗਾਤਾਰ ਵੱਧ ਰਹੀ ਰਾਜਕੀ ਹਿੰਸਾ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਜੰਗਲ, ਜ਼ਮੀਨ, ਦਰਿਆਵਾਂ, ਸਾਂਝੀਆਂ ਚਾਰਗਾਹਾਂ, ਛਪੱੜਾਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਮਿਲਖਾਂ ਦੇ ਸਾਂਝੇ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਤੱਕ ਜੋ ਵੀ ਗਰੀਬ ਜਨਤਾ ਦੀ ਥੋੜ੍ਹੀ ਬਹੁਤ ਰਸਾਈ ਸੀ, ਉਹ ਵਧ ਰਹੇ ਹਕੂਮਤੀ ਹਮਲੇ ਦੀ ਮਾਰ ਹੇਠ ਆਈ ਹੋਈ ਹੈ । ਇਹ ਹਮਲਾ ਸਪੈਸ਼ਲ ਆਰਥਕ ਜ਼ੋਨਾਂ (SEZs) ਅਤੇ ਖਾਣਾਂ, ਸਨਅਤੀ ਵਿਕਾਸ, ਸੂਚਨਾ ਤਕਨੀਕ ਦੇ ਕੇਂਦਰਾਂ ਆਦਿ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਹੋਰ 'ਵਿਕਾਸ' ਪ੍ਰਜੈਕਟਾਂ ਦੇ ਨਾਂ ਥੱਲੇ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਉਹ ਭੂ-ਗੋਲਿਕ ਖਿੱਤਾ, ਜਿਥੇ ਹਕੂਮਤ ਨੇ ਫੌਜੀ ਹਮਲਾ ਵਿੱਢਣ ਦੀ ਵਿਉਂਤਬੰਦੀ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਹੈ - ਖਣਿਜਾਂ, ਜੰਗਲ ਰੂਪੀ ਦੌਲਤ ਅਤੇ ਜਲ-ਸਰੋਤਾਂ ਵਰਗੇ ਕੁਦਰਤੀ ਸੰਸਧਾਨਾਂ ਨਾਲ ਮਾਲਾ-ਮਾਲ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਖੇਤਰ ਅਨੇਕਾਂ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਦੀ ਵੱਡੀ ਪੱਧਰ 'ਤੇ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਦਾ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਸਥਾਨਕ ਆਦਿਵਾਸੀ ਵਸੋਂ ਨੇ, ਉਜਾੜੇ (Displacement) ਅਤੇ ਬੇ-ਦਖ਼ਲੀਆਂ ਖਿਲਾਫ਼ ਜਾਨ ਹੂਲਵੀਆਂ ਜੱਦੋ-ਜਹਿਦਾਂ ਕੀਤੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਜੱਦੋ-ਜਹਿਦਾਂ ਨੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਮਾਮਲਿਆਂ ਵਿਚ, ਹਕੂਮਤੀ-ਥਾਪੜਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਨੂੰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਖ਼ੇਤਰਾਂ 'ਚ ਸੰਨ੍ਹ ਲਾਉਣ ਤੋਂ ਠੱਲ੍ਹਿਆ ਹੈ । ਸਾਨੂੰ ਤੌਖਲਾ ਹੈ ਕਿ ਹਕੂਮਤੀ ਹਮਲੇ ਦਾ ਮੰਤਵ ਅਜਿਹੀਆਂ ਜਨਤਕ ਜੱਦੋ-ਜਹਿਦਾਂ ਨੂੰ ਕੁਚਲਣਾ ਵੀ ਹੈ ਤਾਂ ਜੋ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਦੇ ਦਾਖ਼ਲੇ ਅਤੇ ਕਾਰੋਬਾਰ ਨੂੰ ਸਹਿਲ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕੇ ਅਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਖੇਤਰਾਂ ਦੇ ਕੁਦਰਤੀ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਬੇਰੋਕ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਦਾ ਰਾਹ ਸਾਫ਼ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕੇ ।ਅੱਜ ਜਦੋਂ ਅਸਮਾਨਤਾ 'ਚ ਵਾਧਾ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਸਮਾਜਕ ਜਹਾਲਤ ਦੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਬਰਕਰਾਰ ਰਹਿ ਰਹੀਆਂ ਹਨ, ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸੰਸਥਾਗਤ(Structural) ਹਿੰਸਾ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ , ਗ਼ਰੀਬ ਅਤੇ ਹਾਸ਼ੀਏ 'ਤੇ ਧੱਕੀ ਗਈ ਜਨਤਾ ਦੇ ਕੰਗਾਲੀ-ਮੂੰਹ ਸੁੱਟੇ ਜਾਣ ਖਿਲਾਫ਼ ਸੰਘਰਸ਼ ਨੂੰ ਰਾਜਕੀ ਜ਼ਬਰ ਨਾਲ ਨੱਜਿਠਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ - ਤਾਂ ਇਸ ਨੇ ਸਮਾਜਕ ਰੋਹ ਅਤੇ ਬੇਚੈਨੀ ਨੂੰ ਪੈਦਾ ਕਰਨਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸਨੇ ਗਰੀਬ ਜਨਤਾ ਵਲੋਂ ਅਖ਼ਤਿਆਰ ਕੀਤੇ ਸਿਆਸੀ ਹਿੰਸਾ ਦੇ ਰਾਹ ਦੀ ਸ਼ਕਲ ਅਖ਼ਤਿਆਰ ਕਰਨੀ ਹੈ । ਸਮੱਸਿਆ ਦੇ ਮੂਲ ਨੂੰ ਮੁਖਾਤਿਬ ਹੋਣ ਦੀ ਬਜਾਇ, ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਨੇ, ਇਸਨੂੰ ਨੱਜਿਠਣ ਵਾਸਤੇ ਫੌਜੀ ਹਮਲੇ ਵਿੱਢਣ ਦਾ ਰਾਹ ਚੁਣ ਲਿਆ ਹੈ । "ਗਰੀਬੀ ਦਾ ਸਫਾਇਆ ਨਹੀਂ, ਸਗੋਂ ਗਰੀਬਾਂ ਦਾ ਸਫਾਇਆ"- ਇਹੋ ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਦਾ ਅਣ-ਐਲਾਨਿਆ ਨਾਹਰਾ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ।
ਅਸੀਂ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਅਜਿਹੇ ਕੋਈ ਵੀ ਕਦਮ ਭਾਰਤੀ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੀ ਕਮਰ ਤੋੜ ਕੇ ਰੱਖ ਦੇਣਗੇ, ਜੇਕਰ ਹਕੂਮਤ ਆਪਣੇ ਹੀ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਦਾ ਹੱਲ ਤਲਾਸ਼ਣ ਦੀ ਬਜਾਇ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਫੌਜੀ ਹਮਲੇ ਦੇ ਰਾਹ ਝੁਕਾਉਣ ਦੇ ਰਾਹ ਪੈਂਦੀ ਹੈ । ਹਾਲਾਂਕਿ ਅਜਿਹੇ ਮਨਸੂਬੇ ਦੀ ਥੋੜ੍ਹਚਿਰੀ ਫੌਜੀ ਸਫ਼ਲਤਾ ਵੀ ਅਨਿਸ਼ਚਤ ਹੈ, ਪਰ ਇਸ ਗੱਲ 'ਚ ਕੋਈ ਸ਼ੱਕ ਨਹੀਂ ਕਿ ਸਧਾਰਨ ਜਨਤਾ ਨੂੰ ਅਕਹਿ ਮਾਰ ਝੱਲਣੀ ਪੈਣੀ ਹੈ, ਜਿਹਾ ਕਿ ਸੰਸਾਰ ਭਰ ਦੀਆਂ ਅਨੇਕਾਂ ਬਾਗ਼ੀ ਲਹਿਰਾਂ ਦੇ ਮਾਮਲਿਆਂ 'ਚ ਪ੍ਰਤੱਖ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਹੈ । ਅਸੀਂ ਭਾਰਤ ਦੀ ਹਕੂਮਤ ਨੂੰ ਪੁਰਜ਼ੋਰ ਬੇਨਤੀ ਕਰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਉਹ ਤੁਰੰਤ ਹਥਿਆਰਬੰਦ ਬਲਾਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਬੁਲਾਵੇ ਅਤੇ ਅਜਿਹੇ ਫੌਜੀ ਉਪਰੇਸ਼ਨਾਂ ਦੀਆਂ ਸਭ ਵਿਉਂਤਾਂ ਰੱਦ ਕਰੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ 'ਚ ਘਰੇਲੂ-ਜੰਗ ਛਿੜਨ ਦਾ ਖ਼ਤਰਾ ਸਮੋਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ । ਕਿਉਂਜੋ, ਅਜਿਹੀ ਜੰਗ, ਭਾਰਤੀ ਵਸੋਂ ਦੇ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਗਰੀਬ ਅਤੇ ਨਿਤਾਣੇ ਹਿੱਸਿਆਂ ਨੂੰ ਬੇ-ਪਨਾਹ ਤਬਾਹੀ ਦੇ ਮੂੰਹ ਧੱਕ ਦੇਵੇਗੀ ਅਤੇ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਲਈ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸੰਸਾਧਨਾਂ 'ਤੇ ਡਾਕੇ ਮਾਰਨ ਦਾ ਰਾਹ ਖੋਲ੍ਹ ਦੇਵੇਗੀ । ਅਸੀਂ ਸਭ ਜਮਹੂਰੀਅਤ-ਪਸੰਦ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸੱਦਾ ਦਿੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਉਹ ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਇਸ ਅਪੀਲ 'ਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣ ।
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ਪਿਛੋਕੜੀ ਨੋਟ
ਇਸ ਗੱਲ ਦੀ ਪ੍ਰੈਸ ਵਿੱਚ ਕਾਫ਼ੀ ਚਰਚਾ ਹੋ ਚੁੱਕੀ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ, ਕਥਿੱਤ ਮਾਓਵਾਦੀ ਬਾਗ਼ੀਆਂ ਉੱਪਰ ਲਾਮਿਸਾਲ ਫੌਜੀ ਹਮਲਾ ਵਿੱਢਣ ਦੀਆਂ ਵਿਉਂਤਬੰਦੀਆਂ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ, ਜਿਸ ਦੌਰਾਨ ਨੀਮ ਫੌਜੀ ਅਤੇ ਬਗ਼ਾਵਤ ਵਿਰੋਧੀ ਬਲ਼ਾਂ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇਗੀ ਅਤੇ ਇਹ ਵੀ ਸੰਭਾਵਨਾ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤ ਦੇ ਫੌਜੀ ਬਲ਼ਾਂ, ਇੱਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਹਵਾਈ ਸੈਨਾ ਦੀ ਵੀ ਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ । ਇਹ ਫੌਜੀ ਓਪਰੇਸ਼ਨ, ਆਂਧਰਾ ਪ੍ਰਦੇਸ਼, ਛੱਤੀਸਗੜ੍ਹ, ਝਾਰਖੰਡ, ਪੱਛਮੀ ਬੰਗਾਲ ਅਤੇ ਮਹਾਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਆਦਿਵਾਸੀ ਵਸੋਂ ਵਾਲੇ, ਜੰਗਲ ਅਤੇ ਨੀਮ ਜੰਗਲ ਦੇ ਪੇਂਡੂ ਇਲਾਕਿਆਂ 'ਚ ਚਲਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ । ਪ੍ਰਾਪਤ ਸੂਚਨਾ ਮੁਤਾਬਕ, ਇਹ ਹੱਲਾ ਅਮਰੀਕਾ ਦੀਆਂ ਬਗ਼ਾਵਤ-ਵਿਰੋਧੀ ਏਜੰਸੀਆਂ ਦੇ ਰਾਇ ਮਸ਼ਵਰੇ ਨਾਲ ਉਲੀਕਿਆ ਗਿਆ ਹੈ । ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਦੇ ਪ੍ਰਸਤਾਵਿਤ ਫੌਜੀ ਹਮਲੇ ਨੂੰ ਦਰੁਸਤ ਪ੍ਰਸੰਗ 'ਚ ਸਮਝਣ ਵਾਸਤੇ, ਇਸ ਟਕਰਾ ਦੀ ਆਰਥਕ, ਸਮਾਜਕ ਅਤੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਪਿੱਠਭੂਮੀ ਨੂੰ ਸਮਝਣਾ ਜਰੂਰੀ ਹੈ । ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ 'ਤੇ ਇਸ ਸੰਕਟ ਦੇ ਤਿੰਨ ਅਜਿਹੇ ਪਸਾਰ ਹਨ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਮਹੱਤਵ ਦੇਣਾ ਬਣਦਾ ਹੈ ਕਿਉਂ ਜੋ ਅਕਸਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਨਜ਼ਰਅੰਦਾਜ਼ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ :
1) ਉੱਤਰ-ਬਸਤੀਵਾਦੀ (Post-colonial) ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਅੰਦਰ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਅਸਫ਼ਲਤਾ
2) ਹਾਸ਼ੀਏ 'ਤੇ ਵਸਦੀ ਗ਼ਰੀਬ ਜਨਤਾ 'ਤੇ ਢਾਂਚਾਗਤ ਹਿੰਸਾ (Structural Violence) ਦੀ ਹਾਲਤ ਦਾ ਬਣੇ ਰਹਿਣਾ
ਸਗੋਂ ਅਕਸਰ ਇਸ ਹਿੰਸਾ 'ਚ ਹੁੰਦੇ ਵਾਧੇ
3) ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਨਾਂ ਥੱਲੇ ਆਦਿਵਾਸੀ ਅਤੇ ਕਿਸਾਨ ਜਨਤਾ ਦੇ ਤੁੱਛ ਸੰਸਾਧਨ ਅਧਾਰ (Resource Base) 'ਤੇ
ਵੱਡ ਅਕਾਰੀ ਹਮਲਾ
ਇਨ੍ਹਾਂ 'ਤੇ ਵਾਰੀ ਸਿਰ ਨਿਗਾਹ ਮਾਰਨ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ, ਅਸੀਂ ਧਿਆਨ ਦਿਵਾਉਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਅਸੀਂ ਕੋਈ ਨਿਵੇਕਲੇ ਤੱਥ ਨਹੀਂ ਦੱਸਣ ਜਾ ਰਹੇ । ਇਹ ਜਾਣੇ-ਪਛਾਣੇ ਤੱਥ ਹਨ, ਭਾਵੇਂ ਸੌਖ ਨਾਲ ਹੀ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਵਿਸਾਰ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਇਨ੍ਹਾਂ 'ਚੋਂ ਜਿਆਦਾਤਰ ਤੱਥ ਉਹ ਹਨ, ਜੋ ਪਲਾਨਿੰਗ ਕਮੀਸ਼ਨ, ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਮਾਹਿਰ ਗਰੁੱਪ (ਰਿਟਾ. ਸਿਵਲ ਅਧਿਕਾਰੀ ਡੀ. ਬੰਦੋਪਾਧਿਆਏ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠ) ਦੀ ਅਪ੍ਰੈਲ 2008 ਦੀ ਰਿਪੋਰਟ 'ਚ ਟਿੱਕੇ ਗਏ ਸਨ । ਇਸ ਰਿਪੋਰਟ ਦਾ ਮਕਸਦ "ਅੱਤਵਾਦ ਪ੍ਰਭਾਵਤ ਇਲਾਕਿਆਂ 'ਚ ਵਿਕਾਸ ਚੁਣੌਤੀਆਂ" ਦਾ ਅਧਿਅਨ ਕਰਨਾ ਸੀ ।
ਭਾਵੇਂ ਨਹਿਰੂਵਾਦੀ ਦੌਰ ਦਾ ਸਮਾਂ ਸੀ ਅਤੇ ਚਾਹੇ ਹੁਣ ਨਵ-ਸੁਧਾਰਵਾਦੀ ਦੌਰ ਦਾ ਸਮਾਂ ਹੈ, ਪਰ ਉੱਤਰ-ਬਸਤੀਵਾਦੀ ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ, ਦੇਸ਼ ਦੀ ਜਨਤਾ ਦੀਆਂ - ਗ਼ਰੀਬੀ, ਰੁਜ਼ਗਾਰ, ਆਮਦਨ, ਰਿਹਾਇਸ਼, ਮੁੱਢਲੀ ਸਿਹਤ ਸੰਭਾਲ, ਵਿੱਦਿਆ, ਗ਼ੈਰ-ਬਰਾਬਰੀ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਵਿਤਕਰੇਬਾਜੀ ਦੀਆਂ ਮੁੱਢਲੀਆਂ ਸੱਮਸਿਆਵਾਂ ਤੋਂ ਨਿਜ਼ਾਤ ਦਵਾਉਣ 'ਚ ਬੁਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਸਫ਼ਲ ਸਿੱਧ ਹੋਇਆ ਹੈ । ਕੁੱਝ ਜਾਣੇ-ਪਛਾਣੇ ਪਰ ਅਕਸਰ ਭੁਲਾਏ ਜਾਂਦੇ ਤੱਥਾਂ ਨੂੰ ਜੇ ਯਾਦ ਕਰਨਾ ਹੋਵੇ ਤਾਂ ਚੇਤੇ ਕਰੋ ਕਿ ਸੰਨ 2004-05 'ਚ ਭਾਰਤ ਦੀ ਅਬਾਦੀ ਦੇ 77% ਹਿੱਸੇ ਦਾ ਪ੍ਰਤੀ ਉੱਪਭੋਗ ਖ਼ਰਚ (Consumer Expenditure) 20 ਰੁਪਏ ਦਿਨ ਤੋਂ ਵੀ ਥੱਲੇ ਸੀ । ਭਾਵ ਕਿ ਅਮਰੀਕੀ ਡਾਲਰ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਰੁਪਏ ਦੀ ਮੌਜੂਦਾ ਅਵਾਸਤਵਿਕ ਵਟਂਦਰਾ ਦਰ (Nominal Exchange Rate) ਦੇ ਹਿਸਾਬ 50 ਸੈਂਟ ਤੋਂ ਵੀ ਘੱਟ ਅਤੇ ਖ਼ਰੀਦ ਸ਼ਕਤੀ ਸਮਤਾ (Purchasing Power Parity) ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਅਨੁਸਾਰ - ਲਗਭਗ 2 ਡਾਲਰ । 2001 ਦੀ ਜਨ-ਗਨਣਾ ਮੁਤਾਬਕ ਸਿਆਸੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੇ 62 ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਬਾਅਦ ਵੀ, ਭਾਰਤੀ ਘਰਾਂ ਦੇ ਸਿਰਫ਼ 42% ਹਿੱਸੇ ਦੀ ਹੀ ਬਿਜਲੀ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚ ਸੰਭਵ ਹੋ ਸਕੀ ਹੈ । 80% ਦੇ ਲਗਭਗ ਘਰਾਂ ਦੀ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਪੀਣ-ਯੋਗ ਪਾਣੀ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ ਹੈ ; ਮਤਲਬ ਕਿ 80 ਕਰੋੜ ਦੀ ਵਿਸ਼ਾਲ ਅਬਾਦੀ ਨੂੰ ਪੀਣ-ਯੋਗ ਪਾਣੀ ਤੱਕ ਹਾਸਲ ਨਹੀਂ ।
ਕਿਰਤੀ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਦੇਸ ਵਿੱਚ ਕੀ ਹਾਲਤ ਹੈ ? ਕਾਮਾ ਸ਼ਕਤੀ ਦਾ 93% ਜੋ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਕਿਰਤੀਆਂ ਦੀ ਭਾਰੀ ਬਹੁ-ਗਿਣਤੀ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ "ਗ਼ੈਰ-ਜਥੇਬੰਦ ਖੇਤਰ ਦੀਆਂ ਇਕਾਈਆਂ ਬਾਰੇ ਕੌਮੀ ਕਮੀਸ਼ਨ" (National Commission for Enterprises in the Unorganised Sector) (NCEUS) "ਗ਼ੈਰ ਰਸਮੀ ਕਾਮੇ" ਕੰਹਿਦਾ ਹੈ - ਇਹ ਕਾਮੇ ਕਿਸੇ ਵੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਸੁਰੱਖਿਆ, ਕੰਮ-ਸੁਰੱਖਿਆ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਸੁਰੱਖਿਆ ਤੋਂ ਵਾਂਝੇ ਹਨ । ਇਨ੍ਹਾਂ 'ਚੋਂ 58% ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਖ਼ੇਤਰ ਅਤੇ ਬਾਕੀ ਉਤਪਾਦਨ ਤੇ ਸੇਵਾਵਾਂ ਦੇ ਖ਼ੇਤਰ 'ਚ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ । ਤਨਖਾਹਾਂ ਬਹੁਤ ਨਿਗੂਣੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਕੰਮ ਹਾਲਤਾਂ ਬਹੁਤ ਬੱਦਤਰ - ਜੋ ਕਿ ਗਹਿਰੀ ਅਤੇ ਨਿਰੰਤਰ ਗ਼ਰੀਬੀ ਨੂੰ ਜਨਮ ਦਿੰਦੀਆਂ ਹਨ । ਇਹ ਗ਼ਰੀਬੀ, ਪਿਛਲੇ ਡੇਢ ਦਹਾਕੇ ਤੋਂ ਨਿਰਪੇਖ ਤੌਰ 'ਤੇ ਵਧ ਰਹੀ ਹੈ । "ਗ਼ੈਰ-ਜਥੇਬੰਦ ਖ਼ੇਤਰ ਦੀਆਂ ਇਕਾਈਆਂ ਬਾਰੇ ਕੌਮੀ ਕਮਿਸ਼ਨ" (National Commission for Enterprises in the Unorganised Sector) (NCEUS) "ਗ਼ਰੀਬ ਅਤੇ ਖਤਰੇ-ਮੂੰਹ" ਜਨਤਾ ਦੀ ਤਦਾਦ 1999-00 'ਚ 81 ਕਰੋੜ 10 ਲੱਖ ਤੋਂ ਵਧਕੇ, 2004-05 'ਚ 83ਕਰੋੜ 60 ਲੱਖ ਤੱਕ ਅੱਪੜ ਗਈ ਹੈ । ਜਦੋਂ ਕਿਰਤੀਆਂ ਦੀ ਭਾਰੀ ਬਹੁਗਿਣਤੀ ਹਾਲੇ ਵੀ ਖੇਤੀ-ਖ਼ੇਤਰ 'ਚ ਜੁਟੀ ਹੋਈ ਹੈ, ਖੇਤੀ-ਖ਼ੇਤਰ ਦੀ ਆਰਥਕ ਖੜੋਤ, ਵੱਡੀ ਗਿਣਤੀ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਨਿਰੰਤਰ ਮੰਦਹਾਲੀ ਦਾ ਮੁੱਖ ਕਾਰਣ ਬਣਦੀ ਹੈ । ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਨੇ ਜਮੀਨ ਦੀ ਵੰਡ ਨੂੰ ਕਿਸੇ ਅਰਥ ਭਰਪੂਰ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਹੱਥ ਨਹੀਂ ਲਿਆ ਅਤੇ ਜਮੀਨ ਦੀ ਵੰਡ ਅੱਜ ਵੀ ਬੇਹੱਦ ਅਣਸਾਵੀਂ ਹੈ ।ਪੇਂਡੂ ਘਰਾਂ ਦਾ 60% ਤੋਂ ਵੱਧ ਹਿੱਸਾ, ਪੂਰਨ ਤੌਰ 'ਤੇ ਜਮੀਨ ਤੋਂ ਵਿਰਵਾ ਹੈ । ਛੋਟੇ ਅਤੇ ਸੀਮਾਂਤ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਤਿੱਖੇ ਆਰਥਕ ਸੰਕਟ ਤੇ ਨਿਰਾਸ਼ਤਾ ਨੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਖ਼ੁਦਕੁਸ਼ੀਆਂ ਦੇ ਰਾਹ ਧੱਕ ਦਿੱਤਾ ਹੈ । ਜਿਸਦਾ ਨਤੀਜਾ 1997 ਤੋਂ 2007 ਤੱਕ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚਲੀ ਖ਼ੁਦਕੁਸ਼ੀਆਂ ਦੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵਿਸ਼ਾਲ ਛੱਲ, 1,82,936 ਖ਼ੁਦਕੁਸ਼ੀਆਂ ਦੇ ਰੂਪ 'ਚ ਸਾਹਮਣੇ ਹੈ । ਇਹ ਮੌਜੂਦਾ ਟਕਰਾ ਦੀ ਆਰਥਕ ਅਧਾਰਸ਼ਿਲਾ ਹੈ ।
ਪਰ ਦੁੱਖਾਂ ਅਤੇ ਗ਼ਰੀਬੀ ਦੇ ਇਸ ਸਮੁੰਦਰ ਵਿੱਚ, ਅਬਾਦੀ ਦੇ ਦੋ ਵਰਗ ਬਾਕੀਆਂ ਨਾਲੋਂ ਕਿਤੇ ਬੱਦਤਰ ਹਾਲਤ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ - ਅਨੁਸੂਚਿਤ ਜਾਤੀਆਂ ਅਤੇ ਜਨਜਾਤੀਆਂ । ਐਸ. ਸੀ, ਐਸ. ਟੀ - ਸਮਾਜਕ ਖੁਸ਼ਹਾਲੀ ਦੇ ਸਭਨਾਂ ਸੂਚਕਾਂ 'ਚ ਹੀ ਜਨਰਲ ਅਬਾਦੀ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਹਨ । ਗ਼ਰੀਬੀ ਦੀ ਦਰ ਉੱਚੀ ਹੈ, ਜਮੀਨਾਂ ਤੋਂ ਵਾਂਝੇ ਹੋਣ ਦੀ ਦਰ ਜਿਆਦਾ ਹੈ, ਬੱਚਿਆਂ ਦੀ ਮੌਤ ਦਰ ਉੱਚੀ ਹੈ, ਰਸਮੀ ਵਿੱਦਿਆ ਦੀ ਦਰ ਨੀਵੀਂ ਹੈ ਅਤੇ ਬਾਕੀ ਕੁੱਝ ਵੀ ਇਵੇਂ ਹੀ ਹੈ । ਆਰਥਕ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਵਿਰਵੇਪਣ ਦੇ ਇਸ ਵਖਰੇਵੇਂ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਵਾਸਤੇ ਸਾਨੂੰ ਦਰਪੇਸ਼ ਸੰਕਟ ਦੇ ਉਸ ਦੂਸਰੇ ਪਹਿਲੂ ਵੱਲ ਝਾਤ ਮਾਰਨੀ ਪੈਣੀ ਹੈ, ਜਿਸ ਵੱਲ ਅਸੀਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਸੰਕੇਤ ਕਰ ਚੁੱਕੇ ਹਾਂ - ਸੰਸਥਾਗਤ ਹਿੰਸਾ ।
ਸੰਸਥਾਗਤ ਹਿੰਸਾ ਦੇ ਦੋ ਪਹਿਲੂ ਹਨ - (ਪਹਿਲਾ) ਜਾਤ ਅਤੇ ਨਸਲ ਦੀ ਤਰਜ਼ 'ਤੇ ਹੁੰਦੀ ਵਿਤਕਰੇਬਾਜ਼ੀ, ਜ਼ਲਾਲਤ ਅਤੇ ਦਾਬਾ ਅਤੇ (ਦੂਸਰਾ) ਰਾਜ ਦੇ ਬਲ਼ਾਂ ਦੁਆਰਾ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਨਿਰੰਤਰ ਜ਼ਲਾਲਤ, ਹਿੰਸਾ ਅਤੇ ਤਸ਼ੱਦਦ । ਇਸ ਲਈ ਐਸ. ਸੀ, ਐਸ. ਟੀ ਅਬਾਦੀ ਜਿੱਥੇ ਭੁੱਖਮਰੀ , ਗ਼ਰੀਬੀ ਅਤੇ ਨਿਮਾਣੀਆਂ ਜੀਵਨ ਹਾਲਤਾਂ ਦੀ ਹਿੰਸਾ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਹੈ, ਉੱਥੇ ਰੋਜ਼ਾਨਾ ਦਰਪੇਸ਼ ਸੰਸਥਾਗਤ ਹਿੰਸਾ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਦੁੱਖ ਤਕਲੀਫ਼ਾਂ 'ਚ ਵਾਧਾ ਕਰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਜੀਵਨ ਹਾਲਤਾਂ 'ਚ ਹੋਰ ਨਿਘਾਰ ਪੈਦਾ ਕਰਦੀ ਹੈ । ਬੇਸ਼ੱਕ ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਨੇ ਅਨੇਕਾਂ ਵਿਧਾਨਕ ਚਾਰਜੋਈਆਂ ਕੀਤੀਆਂ ਹੋਣ ਪਰ ਅਣਗਿਣਤ ਸਮਾਜਕ ਵਿਹਾਰਾਂ ਰਾਹੀਂ, ਯੁੱਗਾਂ ਪੁਰਾਣਾ ਜਾਤ ਪ੍ਰਬੰਧ ਜਿਉਂਦਾ ਰਹਿ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਜਾਤ-ਪ੍ਰਬੰਧ ਅਤੇ ਆਮ ਗ਼ਰੀਬੀ ਦਾ ਰਲੇਵਾਂ, ਭਾਰਤੀ ਵਸੋਂ ਦੇ ਇਸ ਹਿੱਸੇ ਨੂੰ ਆਰਥਕ ਤੌਰ 'ਤੇ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਹੀਣਾ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਤੌਰ 'ਤੇ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਬੇਵੁੱਕਤਾ ਬਣਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ । ਇਸ ਸਮਾਜਕ ਵਿਤਕਰੇਬਾਜ਼ੀ, ਜ਼ਲਾਲਤ ਅਤੇ ਦਾਬੇ ਦਾ , ਬਿਨਾਂ ਸ਼ੱਕ, ਪੁਲਿਸ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਦੀਆਂ ਹੋਰ ਕਨੂੰਨ ਲਾਗੂ ਕਰਨ ਵਾਲੀਆਂ ਏਜੰਸੀਆਂ ਦੁਆਰਾ, ਐਸ. ਸੀ, ਐਸ. ਟੀ. ਵਸੋਂ ਨਾਲ ਕੀਤੇ ਜਾਣ ਵਾਲੇ ਵਿਹਾਰ 'ਚ ਭਲੀਭਾਂਤ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕਿਸੇ ਵੀ ਪੱਜ, ਨਿਰੰਤਰ ਜਲੀਲ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ , ਕੁੱਟ ਧਰਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤੇ ਗਿਰਫ਼ਤਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।ਇਸ ਕਰਕੇ, ਹਕੂਮਤ ਨੇ, ਨਾ ਸਿਰਫ਼ ਇਸ ਵਸੋਂ ਦਾ ਆਰਥਕ ਤੇ ਸਮਾਜਕ ਵਿਕਾਸ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਕਾਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ, ਸਗੋਂ ਇਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਲੁੱਟ ਤੇ ਉਤਪੀੜਨ ਕਰਦਾ ਹੈ । ਭਾਵੇਂ ਐਸ. ਸੀ., ਐਸ, ਟੀ. ਵਸੋਂ ਕੁੱਲ ਮਿਲਾ ਕੇ ਭਾਰਤੀ ਅਬਾਦੀ ਦਾ ਚੁਥਾਈ ਬਣਦੀ ਹੈ ਪਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਖ਼ੇਤਰਾਂ 'ਚ ਜਿੱਥੇ ਹਕੂਮਤ ਨੇ ਮਾਓਬਾਦੀ ਬਾਗ਼ੀਆਂ ਖਿਲਾਫ਼ ਫੌਜੀ ਹਮਲੇ ਦੀ ਵਿਉਂਤਬੰਦੀ ਕੀਤੀ ਹੈ, ਉੱਥੇ ਇਹ ਕੁੱਲ ਅਬਾਦੀ ਦੀ ਭਾਰੀ ਬਹੁ-ਗਿਣਤੀ ਬਣਦੀ ਹੈ । ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਇਹ ਹੈ ਮੌਜੂਦਾ ਟਕਰਾ ਦਾ ਸਮਾਜਕ ਪਿਛੋਕੜ।
ਇੱਥੋਂ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਤੀਸਰਾ ਪਹਿਲੂ ਉੱਘੜਦਾ ਹੈ : ਸਾਂਝੀਆਂ ਜਾਇਦਾਦਾਂ ਦੇ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਤੱਕ, ਹਾਸ਼ੀਏ 'ਤੇ ਵਸਦੀ ਗ਼ਰੀਬ ਜਨਤਾ ਦੀ ਰਸਾਈ ਉੱਪਰ ਲਾਮਿਸਾਲ ਹਮਲਾ । ਡੂੰਘੀਆਂ ਜੜ੍ਹਾਂ ਜਮਾਈ ਬੈਠੀ ਗ਼ਰੀਬੀ ਅਤੇ ਨਿਰਵਿਘਨ ਹਿੰਸਾ ਦੇ ਸੁਮੇਲ ਰਾਹੀਂ ਹਕੂਮਤ ਦਾ ਹਾਲੀਆ ਯਤਨ ਹੈ ਕਿ ਗ਼ਰੀਬ ਤੇ ਨਿਤਾਣੀ ਜਨਤਾ ਦੇ ਤੁੱਛ ਸੰਸਾਧਨ ਅਧਾਰ ਨੂੰ ਵੀ ਹੜੱਪ ਲਿਆ ਜਾਵੇ । ਇਹ ਸੰਸਾਧਨ ਅਧਾਰ, ਹੁਣ ਤੱਕ ਬਹੁਤਾ ਕਰਕੇ ਮੰਡੀ ਦੇ ਘੇਰੇ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਮੱਧ-80ਵਿਆਂ ਤੋਂ ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਦੇ ਨੀਤੀ-ਚੌਖਟੇ 'ਚ ਆਏ ਨਵ=-ਸੁਧਾਰਵਾਦੀ ਮੌੜੇ ਨੇ, ਆਰਥਕ ਨਿਤਾਣੇਪਣ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਬੇਵੁੱਕਤੀ ਦੀਆਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਹੋਰ ਗਹਿਰਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ । ਗ਼ਰੀਬ ਜਨਤਾ ਦੀ, ਜੰਗਲ਼, ਜਮੀਨ, ਦਰਿਆਵਾਂ, ਸਾਂਝੀਆਂ ਚਰਾਂਦਾਂ, ਛੱਪੜਾਂ ਅਤੇ ਸਾਂਝੀਆਂ ਜਾਇਦਾਦਾਂ ਦੇ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਤੱਕ ਜੋ ਵੀ ਥੋੜੀ ਬਹੁਤ ਰਸਾਈ ਸੀ, ਜਿਹੜੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਗ਼ਰੀਬੀ ਦੇ ਨਿਘਾਰ ਦੀ ਜਿੱਲ੍ਹਣ 'ਚ ਯਕਦਮ ਡਿੱਗਣ ਤੋਂ ਬਚਾਓ ਦਾ ਸਾਧਨ ਸੀ - ਵਧ ਰਹੇ ਹਕੂਮਤੀ ਹਮਲੇ ਦੀ ਮਾਰ ਥੱਲੇ ਆਈ ਹੋਈ ਹੈ । ਇਹ ਹਮਲਾ, ਸਪੈਸ਼ਲ ਆਰਥਕ ਜੋਨਾਂ(SEZs) ਅਤੇ ਸਨਅਤੀ ਵਿਕਾਸ , ਸੂਚਨਾ ਤਕਨੀਕੀ ਪਾਰਕਾਂ ਆਦਿ ਜਿਹੇ ਅਖੌਤੀ 'ਵਿਕਾਸ' ਪ੍ਰਜੈਕਟਾਂ ਦੇ ਓਹਲੇ ਹੇਠ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਅਨੇਕਾਂ ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ ਅਤੇ ਸਿੱਖਿਆ-ਸ਼ਾਸਤਰੀਆਂ (Academics) ਦੀਆਂ ਚੇਤਾਵਨੀਆਂ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ, ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਨੇ 531 ਸਪੈਸ਼ਲ ਆਰਥਕ ਜੋਨ (SEZs) ਸਥਾਪਤ ਕਰ ਦਿੱਤੇ ਹਨ । ਸਪੈਸ਼ਲ ਆਰਥਕ ਜੋਨ, ਦੇਸ਼ ਦੇ ਉਹ ਆਰਥਕ ਖ਼ੇਤਰ ਹਨ, ਜਿੱਥੇ ਜੇਕਰ ਕਿਰਤ ਅਤੇ ਟੈਕਸ ਕਨੂੰਨ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਤੱਜੇ ਨਹੀਂ ਗਏ ਤਾਂ, ਸੁਚੇਤ ਤੌਰ 'ਤੇ, ਕਮਜ਼ੋਰ ਜ਼ਰੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤੇ ਗਏ ਹਨ, ਤਾਂ ਜੋ ਦੇਸੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸੀ ਸਰਮਾਏ ਨੂੰ 'ਆਕਰਸ਼ਿਤ' ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕੇ । ਸਪੈਸ਼ਲ ਆਰਥਕ ਜੋਨ , ਲੱਗਭਗ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਪੱਖੋਂ ਹੀ, ਜਮੀਨ ਦੇ ਇੱਕ ਵੱਡੇ ਅਤੇ ਇੱਕਜੁੱਟ ਪਟੇ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਲਾਜ਼ਮੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਕਿਸਾਨੀ ਦੀ ਜ਼ਮੀਨ ਅਤੇ ਉਪਜੀਵਕਾ ਦੀ ਹਾਨੀ ਕਰਦੇ ਹਨ । ਜਿੱਥੋਂ ਤੱਕ ਸਾਨੂੰ ਪੱਕੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਜਾਣਕਾਰੀ ਹੈ, ਹਾਲੇ ਤੱਕ ਇਨ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਜੈਕਟਾਂ ਦੇ ਨਫ਼ੇ-ਨੁਕਸਾਨ ਬਾਰੇ ਕੋਈ ਸੰਜ਼ੀਦਾ ਅਤੇ ਗੰਭੀਰ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ ਪਰ ਇਸਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਸਰਕਾਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਜੈਕਟਾਂ ਦੇ ਫਾਇਦਿਆਂ ਬਾਰੇ ਦਾਅਵੇ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ । ਜਮੀਨ 'ਤੇ ਹਮਲੇ ਕਾਰਣ ਜਿੰਨੀ ਉਪਜੀਵਕਾ ਦੀ ਹਾਨੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਮੁਆਫ਼ ਕੀਤੇ ਜਾਣ ਵਾਲੇ ਟੈਕਸਾਂ ਕਰਕੇ ਰਾਜ ਦੀ ਆਮਦਨ ਨੂੰ ਜੋ ਖੋਰਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਜੇ ਇਹ ਗਿਣ ਲਈਏ ਤਾਂ ਇਹ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਪ੍ਰਜੈਕਟਾਂ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਅਤੇ ਆਮਦਨ ਦੇ ਵਾਧੇ ਤੋਂ ਕਿਤੇ ਭਾਰੀ ਪੈਣਗੇ ।
ਇਸ ਨਾਲ ਜੁੜਿਆ ਇੱਕ ਹੋਰ ਪਹਿਲੂ, ਸਪੈਸ਼ਲ ਆਰਥਕ ਜੋਨ ਅਤੇ ਅਜਿਹੇ ਹੋਰ ਪ੍ਰਜੈਕਟਾਂ ਵਾਸਤੇ ਜਮੀਨ ਕਬਜੇ 'ਚ ਲੈਣ ਦਾ ਹੁੰਦਾ ਵਿਰੋਧ ਹੈ । ਡਾ. ਵਾਲਟਰ ਫਰਨਾਂਡੇਜ਼, ਜਿਸਨੇ ਅਜ਼ਾਦੀ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਹੋਏ ਵਿਸਥਾਪਨ (Displacement) ਦਾ ਗਹਿਰਾਈ 'ਚ ਅਧਿਐਨ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਮੁਤਾਬਕ 1947 ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ 2004 ਤੱਕ ਲੱਗਭਗ 6 ਕਰੋੜ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਵਿਸਥਾਪਨ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪਿਆ । ਇਸ ਵਰਤਾਰੇ 'ਚ 2 ਕਰੋੜ 50 ਲੱਖ ਏਕੜ ਜ਼ਮੀਨ ਹਾਸਲ ਹੋਈ, ਜਿਸ ਵਿੱਚੋਂ 70 ਲੱਖ ਇਕੜ ਜ਼ਮੀਨ ਜੰਗਲ ਅਤੇ 60 ਲੱਖ ਏਕੜ ਜ਼ਮੀਨ ਸਾਂਝੀ ਜਾਇਦਾਦ ਦੇ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਸੀ । ਉਜਾੜੇ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ 'ਚੋਂ ਕਿੰਨਿਆਂ ਦਾ ਮੁੜ ਵਸੇਬਾ ਹੋਇਆ ? ਤਿੰਨਾਂ ਮਗਰ ਸਿਰਫ਼ ਇੱਕ ਜਣੇ ਦਾ ! ਇਸ ਕਰਕੇ, ਇਸ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਹੈਰਾਨੀ ਦੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਕਿ ਜੇਕਰ ਲੋਕ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਅਜਿਹੇ ਦਾਅਵਿਆਂ ਦਾ ਯਕੀਨ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ ਕਿ ਵਿਸਥਾਪਨ ਦੇ ਸ਼ਿਕਾਰ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਵਾਜਬ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਮੁੜ-ਵਸੇਬਾ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ ।
ਪਰੰਤੂ ਗ਼ਰੀਬ ਜਨਤਾ ਦੇ ਬੇਮੇਚ ਦੁਖਾਂਤ ਦੇ ਇਸ ਅਰਸੇ ਦੌਰਾਨ ਧਨਾਢ ਤਬਕੇ ਕੀ ਕਰਦੇ ਰਹੇ ? ਭਾਰਤੀ ਆਰਥਕਤਾ ਦੇ ਸੁਧਾਰੀਕਰਨ ਦੇ ਦੌਰ ਦੀ ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਸਮੇਂ ਤੋਂ, ਜਿੱਥੇ ਗ਼ਰੀਬ ਜਨਤਾ ਨੇ ਆਪਣੀ ਵਾਸਤਵਿਕ ਆਮਦਨ ਨੂੰ ਲੁੜਕਦਿਆਂ ਵੇਖਿਆ, ਉੱਥੇ ਧਨਾਢਾਂ ਦੀ ਆਮਦਨ, ਕਿਸੇ ਵੀ ਹਿਸਾਬ ਨਾਲ, ਖ਼ੁਦ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸ਼ੇਖਚਿਲੀ ਸੁਪਨਿਆਂ ਤੋਂ ਵੀ ਵੱਧਕੇ ਵਧੀ । ਤਾਜ਼ਾ ਅਧਿਅਨਾਂ ਤੋਂ ਬਥੇਰੇ ਸਬੂਤ ਮਿਲਦੇ ਹਨ ਕਿ ਭਾਰਤ ਹੰਦਰ ਆਮਦਨ ਅਤੇ ਦੌਲਤ ਦੇ ਪੱਧਰਾਂ ਦੇ ਪਾੜੇ , 1980ਵਿਆਂ ਦੇ ਮੱਧ ਤੋਂ ਇੱਕਸਾਰ ਤੇਜ਼ੀ ਤੇ ਭਿਆਨਕਤਾ ਨਾਲ ਵਧੇ ਹਨ ।
ਇਸ ਵਧ ਰਹੀ ਨਾ-ਬਰਾਬਰੀ ਦਾ ਮੋਟਾ-ਸੋਟਾ ਝਲਕਾਰਾ, ਦੋ ਜਾਣੇ-ਪਛਾਣੇ ਤੱਥਾਂ ਨੂੰ ਨਾਲੋ-ਨਾਲ ਵੇਖਣ ਤੋਂ ਮਿਲਦਾ ਹੈ । (ਪਹਿਲਾ) ਸਾਲ 2004-05 'ਚ 77% ਅਬਾਦੀ ਦਾ ਦਿਹਾੜੀ ਦਾ ਖ਼ਪਤ-ਖਰਚਾ (Consumer Expenditure) 20 ਰੁਪਈਆਂ ਤੋਂ ਵੀ ਘੱਟ ਸੀ, (ਦੂਜਾ) ਸਾਲ 2008 'ਚ Merrill Lynch ਅਤੇ Capgemini ਵਲੋਂ ਜਾਰੀ ਸਲਾਨਾ ਆਲਮੀ ਰਿਪੋਰਟ ਮੁਤਾਬਕ, ਸਾਲ 2007 'ਚ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਕਰੋੜਪਤੀਆਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ 'ਚ ਪਰ ਨਾਲੋਂ 22.6 % ਦਾ ਵਾਧਾ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਇਹ ਵਾਧਾ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਕਿਸੇ ਵੀ ਹੋਰ ਮੁਲਕ ਨਾਲੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਸੀ ।
ਇਸ ਲਈ, ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਵਲੋਂ ਕੀਤੇ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਮਚਾਈ ਤਬਾਹੀ, ਨਾ-ਬਰਾਬਰੀ ਦੇ ਵੱਧਦੇ ਪੱਧਰਾਂ, ਸਮਾਜਕ ਬੇ-ਵੁੱਕਤੀ ਦੀਆਂ ਜਾਰੀ ਰਹਿ ਰਹੀਆਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਅਤੇ ਸੰਸਥਾਗਤ ਹਿੰਸਾ ਦਾ, ਸਾਂਝੀਆਂ ਜਾਇਦਾਦਾਂ ਦੇ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਤੱਕ ਰਸਾਈ ਨੂੰ ਹਰ ਹੀਲੇ ਸੀਮਤ ਕਰਨ ਦੇ ਯਤਨਾਂ ਨਾਲ ਹੋਇਆ ਸੁਮੇਲ, ਪਲਾਨਿੰਗ ਕਮੀਸ਼ਨ ਦੇ ਮਾਹਿਰ ਗਰੁੱਪ ਅਨੁਸਾਰ, ਸਮਾਜਕ ਰੋਹ, ਉਪਰਾਮਤਾ ਅਤੇ ਬੇਚੈਨੀ ਨੂੰ ਜਨਮ ਦਿੰਦਾ ਹੈ । ਲੱਗਭਗ ਸਭਨਾਂ ਹੀ ਮਾਮਲਿਆਂ 'ਚ, ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਜਨਤਾ ਆਪਣੇ ਰੋਸ ਨੂੰ ਸ਼ਾਂਤਮਈ ਤਰੀਕਿਆਂ ਨਾਲ ਜ਼ਾਹਿਰ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੀ ਹੈ - ਮੁਜ਼ਾਹਰੇ ਕੀਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਧਰਨੇ ਲਾਏ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਬੇਨਤੀ-ਪੱਤਰ ਦਿੱਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ । ਸਾਰੇ ਹੀ ਮਾਮਲਿਆਂ 'ਚ ਹਕੂਮਤ ਦਾ ਜਵਾਬ ਅਸਧਾਰਨ ਤੌਰ 'ਤੇ ਇੱਕਸਾਰ ਹੈ - ਸ਼ਾਂਤਮਈ ਮੁਜ਼ਹਾਰਿਆਂ 'ਤੇ ਇਹ ਟੁੱਟ ਪੈਂਦੀ ਹੈ, ਹਥਿਆਰਬੰਦ ਗੁੰਡਾ-ਟੋਲੇ ਲੋਕਾਂ 'ਤੇ ਹਮਲਾ ਕਰਨ ਘੱਲੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਲੀਡਰਾਂ 'ਤੇ ਝੂਠੇ ਕੇਸ ਮੜ੍ਹ ਦਿੱਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਗ੍ਰਿਫ਼ਤਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਅਕਸਰ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦਹਿਸ਼ਤਜ਼ਦਾ ਕਰਨ ਲਈ ਪੁਲ਼ਸ ਫਾਇਰਿੰਗ ਅਤੇ ਹਿੰਸਾ ਦਾ ਸਹਾਰਾ ਲਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਸਾਨੂੰ ਸਿਰਫ਼ ਇਹ ਚਤਿਆਉਣ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ ਕਿ ਕਿਵੇਂ ਨੰਦੀਗਰਾਮ, ਸਿੰਗੂਰ ਤੇ ਕਲਿੰਗਾਨਗਰ ਅਤੇ ਹੋਰ ਬਥੇਰੇ ਮੌਕਿਆਂ 'ਤੇ ਹਕੂਮਤ ਨੇ ਬੇਕਿਰਕ ਤਾਕਤ ਨਾਲ, ਸ਼ਾਂਤਮਈ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਰੋਸ-ਪ੍ਰਗਟਾਵਿਆਂ ਨੂੰ ਕੁਚਲ ਦਿੱਤਾ । ਇਸ ਕਰਕੇ , ਜਿਵੇਂ ਅਰੁੰਧਤੀ ਰਾਏ ਵਰਗੇ ਸਮਾਜਕ ਕਾਰਜਕਰਤਾਵਾਂ ਨੇ ਵੀ ਕਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਹਕੂਮਤ ਦਾ ਵਿਹਾਰ ਹੈ ਜਿਹੜਾ, ਜਮਹੂਰੀ ਰੋਸ-ਪ੍ਰਗਟਾਵਿਆਂ ਦੀਆਂ ਸਭਨਾਂ ਸ਼ਕਲਾਂ ਦੇ ਦਰਵਾਜ਼ੇ ਬੰਦ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਗ਼ਰੀਬ ਤੇ ਬੇਦਖ਼ਲੀ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਜਨਤਾ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਹੱਕਾਂ ਦੀ ਰਾਖੀ ਵਾਸਤੇ ਹਥਿਆਰ ਚੁੱਕਣ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ । ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਦਾ ਪ੍ਰਸਤਾਵਿਤ ਫੌਜੀ ਹਮਲਾ ਇਸ ਕਹਾਣੀ ਦੀ, ਇੱਕ ਵਾਰ ਫਿਰ ਨਵੇਂ ਸਿਰੇ ਤੋਂ ਦੁਹਰਾਈ ਤੋਂ ਸਿਵਾ ਹੋਰ ਕੁੱਝ ਨਹੀਂ । ਟਕਰਾ ਦੇ ਮੂਲ ਨੂੰ ਮੁਖ਼ਤਿਬ ਹੋਣ ਦੀ ਬਜਾਇ, ਹਾਸ਼ੀਏ 'ਤੇ ਧੱਕੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਵਾਜਬ ਰੋਸਿਆਂ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਤਿੰਨ ਪਹਿਲੂਆਂ ਦੀ ਅਸੀਂ ਪਹਿਲੋਂ ਚਰਚਾ ਕਰ ਆਏ ਹਾਂ, ਨੂੰ ਮੁਖ਼ਾਤਿਬ ਹੋਣ ਦੀ ਬਜਾਇ, ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਹਕੂਮਤ ਨੇ ਫੌਜੀ ਹੱਲਾ ਵਿੱਢਣ ਦੀ ਬੇਹੱਦ ਨਾ-ਸਮਝੀ ਭਰੀ ਚੋਣ ਕਰਨ ਦਾ ਫ਼ੈਸਲਾ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ ।
ਇੱਥੇ ਇਹ ਯਾਦ ਕਰਨਾ ਵਾਜਿਬ ਹੋਵੇਗਾ ਕਿ ਉਹ ਭੂ-ਗੋਲਿਕ ਖਿੱਤਾ, ਜਿੱਥੇ ਹਕੂਮਤ ਨੇ ਫੌਜੀ ਹਮਲਾ ਕਰਨਾ ਵਿਉਂਤਿਆ ਹੈ, ਖ਼ਣਿਜਾਂ , ਜੰਗਲ ਦੀ ਦੌਲਤ, ਜੀਵ ਵਿਭਿੰਨਤਾ, ਜਲ ਸਰੋਤਾਂ ਵਰਗੇ ਕੁਦਰਤੀ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਨਾਲ ਲੱਦਿਆ ਪਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਹੜਾ ਹਾਲ ਤੱਕ, ਬਹੁਤ ਸਾਰੀਆਂ ਦੇਸੀ-ਬਦੇਸੀ, ਧੜਵੈਲ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਵੱਲੋਂ ਵਿਉਂਤਬੱਧ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਹੜੱਪੇ ਜਾਣ ਦਾ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਬਣਿਆ ਰਿਹਾ ਹੈ । ਹਾਲੇ ਤੱਕ ਤਾਂ, ਸਥਾਨਕ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਵਿਸਥਾਪਨ ਅਤੇ ਬੇਦਖਲੀਆਂ ਖਿਲਾਫ਼ ਜੱਦੋ-ਜਹਿਦਾਂ ਨੇ, ਹਕੂਮਤੀ ਥਾਪੜਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਾਰਪੋਰੇਟਾਂ ਨੂੰ ਵਾਤਾਵਰਣ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਸਰੋਕਾਰਾਂ ਤੋਂ ਬੇਪਰਵਾਹ ਹੋ ਕੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਕੁਦਰਤੀ ਸੰਸਾਧਨਾਂ ਦੀ ਮੁਨਾਫ਼ਿਆਂ ਖਾਤਰ ਲੁੱਟ ਕਰਨ ਤੋਂ ਠੱਲ੍ਹੀ ਰੱਖਿਆ ਹੈ । ਸਾਨੂੰ ਤੌਖ਼ਲਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਹਕੂਮਤੀ ਹਮਲਾ, ਮੰਦਹਾਲੀ ਅਤੇ ਬੇਦਖ਼ਲੀ ਖਿਲਾਫ਼ ਇਨ੍ਹਾਂ ਜਮਹੂਰੀ ਅਤੇ ਜਨਤੱਕ ਜੱਦੋ-ਜਹਿਦਾਂ ਨੂੰ ਕੁਚਲਣ ਦਾ ਯਤਨ ਵੀ ਹੈ । ਸਾਰੀ ਚਾਲ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਧੜਵੈਲ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਦੇ ਦਾਖ਼ਲੇ ਅਤੇ ਕਾਰੋਬਾਰ ਨੂੰ ਰੈਲ਼ਾ ਕਰਨ ਵੱਲ ਸੇਧਤ ਜਾਪਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਜੋ ਇਨ੍ਹਾਂ ਖ਼ੇਤਰਾਂ ਦੇ ਕੁਦਰਤੀ ਸਰੋਤਾਂ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਅੰਨ੍ਹੀ ਲੁੱਟ ਦਾ ਰਾਹ ਸਾਫ਼ ਹੋ ਸਕੇ ।