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Sunday, February 14, 2010

मुद्दा


निशाने पर आदिवासी
संदीप पांडेय


अधिकांश भारतीयों की नजर में पाकिस्तान एक नाकारा राष्ट्र है. पाकिस्तान ने कबायली इलाकों में अपने लोगों के खिलाफ ही जंग छेड़ रखी है. और अब भारत भी अपने आदिवासी इलाकों में यही करने जा रहा है. हालांकि भारतीय और पाकिस्तानी आदिवासी इलाकों में फर्क है और दोनों देशों की समस्याओं की प्रकृति भी भिन्न हैं लेकिन दोनों सरकारें एक दूसरे के बजाए अपने खुद के लोगो के खिलाफ सेना के इस्तेमाल को लेकर उतावली हुई जा रही हैं, जबकि कुछ समय पूर्व तक वे एक दूसरे को ललकार रही थीं. पाकिस्तान जहां आतंकवाद के खिलाफ जंग लड़ रहा है, वहीं भारत नक्सलवाद के.

भारतीय आदिवासी क्षेत्रों के अधिकांश मुख्य हिस्से आज नक्सलवाद से प्रभावित हैं जो कि पूरी तरह से भ्रष्ट सरकारी मशीनरी के शोषण के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है. इन क्षेत्रों में सरकारी मशीनरी पर मानवाधिकार हनन के गंभीर आरोप हैं. छ्त्तीसगढ़ की दक्षिणपंथी भाजपा सरकार ने नक्सलवादियों को समर्थन देने के आरोपी आदिवासियों के खिलाफ सशस्त्र आदिवासी मिलिशिया खड़ा करने की रणनीति अपनाई है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के साथ ही भारत के योजना आयोग ने भी खारिज कर दिया है. यह आदिवासियों के खिलाफ आदिवासियों को खड़ा करने की आत्मघाती रणनीति है.

इस हिंसा और उत्पात के बीच दंतेवाड़ा में गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और उनका संगठन वनवासी चेतना आश्रम काम कर रहा है. अभी कुछ समय पहले तक जब वे विभिन्न तरह की सरकारी विकास और कल्याणकारी योजनाओं को लागू कर रहे थे, वे सरकार के प्रिय बने हुए थे. लेकिन सशस्त्र आदिवासी मिलिशिया सलवा जुड़ूम का प्रयोग शुरू होने और आदिवासियों का उत्पीड़न शुरू होने के बाद हिमांशु जब मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों को बेनकाब करने लगे तो वे सरकार को खटकने लगे.

हिमांशु ने सलवा जुड़ूम द्वारा आदिवासियों को जबरिया उनके गांवों से बेदखल करने और ऐसा करने पर उनकी झोपड़ियां जलाने, महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों सहित आदिवासियो को पीटने और महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार से संबंधित मामले उठाए हैं. ऐसे कुछ मामलों में तो सुरक्षा बलों और एसपीओ सीधे संलिप्त रहे हैं. ऐसे मामले उठाकर हिमांशु कुमार ने सरकार की नाराजगी मोल ली है.

17 मई, 2009 को 7 एकड़ परिसर में फैले वनवासी चेतना आश्रम को ध्वस्त कर दिया गया. हिमांशु के दो महत्वपूर्ण आदिवासी सहयोगी सुखनाथ और कोपा कुंजाम फर्जी मामलों में जेल में हैं. यही नहीं, 10 दिसंबर, 2009 को कोपा कुंजाम के साथ पुलिस थाने पहुंचे आदिवासी वकील एल्बन टोप्पो की भी पिटाई कर दी गई थी.

इस क्षेत्र में हिमांशु इस तरह की अंतिम आवाज हैं. वे यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि सलवा जुड़ूम की वजह से अपने गांवों से विस्थापित होकर पड़ोस में स्थित आंध्र प्रदेश में शरण लेने वाले आदिवासियों को किस तरह से वापस बसाया जा सकता है.

दरअसल कोपा कुंजाम ने 8 जनवरी 2009 को सिंगाराम में 15 निर्दोष आदिवासियों की पुलिस और एसपीओ द्वारा की गई हत्याओं और 18 जून,2009 को माटवाड़ा पुलिस थाने के सामने 3 आदिवासियों की मौत के मामलों को बेनकाब किया था. हिमांशु के दूसरे साथियों पर उनका साथ छोड़ने के लिए भी दबाव बनाया जा रहा है. खुद उन पर उनके किराए का मकान छोड़ने के लिए दबाव डाला जा रहा है.

इसी साल 14 दिसंबर को उनकी पहले से प्रस्तावित पदयात्रा पर कलेक्टर ने इस आशंका में प्रतिबंधित कर दिया कि इसकी आड़ में नक्सली घुसपैठ कर सकते हैं. देश भर से आई 35 महिला कार्यकर्ता उन तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे लेकिन उन्हें पूरे रास्ते प्रताड़ित किया गया और उन्हें लौटने को मजबूर होना पड़ा. यही नहीं बलात्कार की चार पीड़ितों को 16 दिसंबर को आरोपी एसपीओ ने उनके गांवों में पीटा और उन्हें एक कागज पर अंगूठे के निशान लगाने को मजबूर किया जिसमें लिखा था कि उन्होंने हिमांशु के दबाव में मामले दर्ज किए थे.

14 दिसंबर,2009 को सलवा जुड़ूम के संस्थापक नेता महेंद्र कर्मा के पुत्र और दंतेवाड़ा जिला पंचायत अध्यक्ष छबींद्र कर्मा के नेतृत्व में भीड़ हिमांशु के अस्थायी आश्रम में पहुंची और उन पर बस्तर छोड़कर जाने का दबाव बनाया. सलवा जुड़ूम और इन्हीं लोगों द्वारा बनाया गया मां दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच आदिवासी हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है और ये लोग हिमांशु पर बाहरी होने का ठप्पा लगाते हैं. हालांकि महेंद्र कर्मा ने संविधान की पांचवी अनुसूची को लागू किए जाने की खिलाफत की थी. इससे ही साबित होता है कि सलवा जुड़ूम आदिवासी हितों की वास्तव में रक्षा नहीं कर रहा है बल्कि यह राज्य को अपने निहित राजनीतिक हितों को पूरा करने में ही मदद कर रहा है.

हिमांशु ने भारत के गृहमंत्री को इस बात के लिए राजी किया है कि वे 7 जनवरी, 2010 को इलाके में आकर जन सुनवाई में राज्य के उत्पीड़न का शिकार लोगों की आपबीती सुनें. मगर छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने गृहमंत्री को पत्र लिखकर उन्हें छत्तीसगढ़ आने की सलाह दी है.

ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ सरकार सुरक्षा बलों द्वारा किए गए उत्पीड़न से जुड़े सच को सामने नहीं लाना चाहती. वह नहीं चाहती कि कोई भी बाहरी, विशेष रूप से मानवाधिकार कार्यकर्ता ऐसे मामलों की जांच करें. वास्तव में सलवा जुड़ूम का इस्तेमाल फासीवादी ताकतें अपने विरोधियों की आवाजों को खामोश करने के लिए कर रही हैं.

इस क्षेत्र में हिमांशु इस तरह की अंतिम आवाज हैं. वे यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि सलवा जुड़ूम की वजह से अपने गांवों से विस्थापित होकर पड़ोस में स्थित आंध्र प्रदेश में शरण लेने वाले आदिवासियों को किस तरह से वापस बसाया जा सकता है. इस समस्या का हल इस बात में निहित है कि आदिवासियों को राज्य के सुरक्षा बलों और नक्सलवादियों से समान दूरी पर रखा जाए. ऐसे समय जब ताकतवर बल हिंसा का सहारा ले रहे हैं उन्होंने शांति का रास्ता दिखाया है. लेकिन सरकार इलाके पर दोबारा कब्जे को लेकर बेताब है, वह भी बिना सोचे कि इन इलाकों में रहने वाले लोगों पर इसका क्या असर होगा. वास्तव में उनकी दिलचस्पी क्षेत्र के लोगों में नहीं बल्कि यहां के प्राकृतिक संसाधनों में है क्योंकि वहां समृद्ध खदानें हैं और व्यावसायिक निहित हितों की इन पर नजर है.

छत्तीसगढ़ सरकार चाहती है कि हिमांशु बस्तर से चले जाएं. इसके लिए उनके खिलाफ प्रतिहिंसा का सहारा लिया जा रहा है. आपरेशन ग्रीन हंट के रूप में चलाए जा रहे आपरेशन के निशाने पर यूं तो नक्सली हैं लेकिन ऐसा लगता है कि इसका इस्तेमाल आदिवासियों को गांवों से बेदखल करने के लिए किया जा रहा है. हिमांशु तकरीबन अकेले ही इसका विरोध कर रहे हैं और उन्हें बस्तर के भीतर और बाहर दोनों ओर से बहुत कम समर्थन मिल रहा है. वाकई में वे बड़ा संघर्ष कर रहे हैं लेकिन क्या वे राज्य के प्रकोप को सह पाएंगे, यह देखना बाकी है.

28.12.2009, 13.00 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

1 comment:

  1. यह लेख www.raviwar.com से लिया गया है तो इसमें रविवार का साभार लिखा जाना चाहिये था. any way, बहुत सुंदर लेख है संदीप भाई का.
    संजीव सूरजेवाला
    नोयडा

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